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सोमवार, 12 नवंबर 2018

जाने इतनी छोटी उम्र में ही अंग्रेजों से भिड़ गए थे टीपू सुलतान#Public statement



शावेज़ आलम कि रिपोर्ट 

कर्नाटक में टीपू सुल्तान की जयंती मनाने को लेकर हंगामा जारी है और कर्नाटक सरकार कड़ी सुरक्षा के बीच यह जयंती मना रही है. दरअसल कई लोग टीपू सुल्तान को 'तानाशाह शासक' मानते हैं और हिंदू विरोधी होने के भी कई आरोप लगाए जाते हैं. हालांकि इन आरोपों से अलग एक सच्चाई है कि टीपू सुल्तान योग्य शासक होने के साथ ही वे एक विद्वान, कुशल योग्य सेनापति थे.

मैसूर के सुल्तान हैदर अली के घर 20 नवम्बर, 1750 को जन्मे टीपू ने कम उम्र में ही रण में उतरने का फैसला कर लिया था. उनके पिता भी अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई लड़ते हुए अपनी ताकत को लगातार बढ़ा रहे थे. वहीं दूसरे शासक अंग्रेजों के सामने अपनी तलवार गिरा रहे थे. 

अंग्रेज मैसूर भी कब्जा करना चाहते थे, लेकिन टीपू के पिता हैदर अली को यह किसी भी कीमत पर मंजूर नहीं था. अपने पिता के साथ टीपू भी अंग्रेजों की नीतियों के खिलाफ बगावत शुरू कर दी थी. जैसे-जैसे वह बड़े हुए, उन्होंने युद्ध कौशल का अभ्यास शुरू कर दिया. 

जब वे 15 साल के थे, तब उन्होंने अपने पिता के साथ 1766 के आसपास मैसूर के पहले युद्ध में अंग्रेजों के सामने अपनी वीरता का प्रमाण दिया था. शुरुआत में लग रहा था कि टीपू अंग्रेजों के सामने कहीं नहीं टिक पायेंगे, लेकिन देखते ही देखते उन्होंने अंग्रेजों को चारों खाने चित्त कर दिया था.
उसके बाद 1780 में हुए मैसूर के दूसरे युद्ध 'बैटल ऑफ पल्लिलुर' में अंग्रेजों को शिकस्त देने में उन्होंने अपने पिता हैदर अली की काफी मदद की थी. उनके सहयोग से उनके पिता को विजय हासिल हुई थी. दो बार हारने के बाद कुछ भारतीय शासकों और अंग्रेजों ने भी तीसरी बार टीपू सुल्तान पर हमला किया और उन्हें हार का सामना करना पड़ा.
हालांकि अंत में टीपू चारों तरफ से घेर लिए गये थे और उनके पास भागने का मौका था. लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया और वो मैदान में डटे रहे. अंग्रेज बार-बार उनसे सरेंडर करने की अपील करते रहे, लेकिन वह आगे ही बढ़ते रहे. मगर सुल्तान यह जंग हार गए. 1799 को टूरिंग खानाली युद्ध का यह युद्ध टीपू का आखिरी युद्ध साबित हुआ.

उसके बाद अंग्रेजों ने 1784 के आसपास एक संधि की और उसे मेंगलूर संधि का नाम दिया गया. हालांकि इस संधि के बाद भी धोखे से अंग्रेजों ने टीपू के खिलाफ हमला कर दिया. यह चौथा युद्ध था. इस बार अंग्रेजों ने मैसूर की राजधानी श्रीरंगपट्टण पर चढ़ाई की थी. टीपू की सेना भी पीछे कहां रहने वाली थी. उसने दुश्मन का डटकर मुकाबला किया.

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